कहानी संग्रह >> पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ पत्थर के नीचे दबे हुए हाथराजकमल चौधरी
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मानव-जीवन के अनछुए प्रसंगों से उठाकर लाई गई कहानियाँ...
Patthar Ke Niche Dabe Hath
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बहुविधावादी रचनाकारों की किसी खास विधा की रचना को अधिक प्रभावी देखकर अक्सर लोग उन्हें उसी खाते में डाल देते हैं। धीरे-धीरे वह रचनाकार भी अपने को उसी विधा में केन्द्रित कर लेता है और अन्तिम रूप से वह एक विधा का होकर रह जाता है। उदाहरण खोजने में ज्यादा श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। एक खोजें तो दस मिलेंगे। पर ऐसा राजकमल चौधरी के साथ नहीं हुआ। हालाँकि लोगों ने प्रयास कम नहीं किया। इनके नाम लाख गाली-गलौज लिखने के बावजूद कुछ ने उनके कवि रूप को श्रेष्ठ माना, कुछ ने कथाकार रूप को।
कुछ ने इन्हें मैथिली का बड़ा लेखक माना, कुछ ने हिन्दी का। पर तटस्थ दृष्टि से देखने पर ये सारी घोषणाएं असत्य साबित हो गई। कोई भी विधा इनके यहाँ कमतर नहीं हुई। अबाध गति से हर विधा में लिखते गये। इनके बारे में यह निर्णय लेना कठिन है कि इनका कथाकार बड़ा है या कवि, या उपन्यासकार, या अनुवादक, या निबन्धकार या समीक्षक। यहाँ तक कि इनके पत्रों और डायरियों तक में समाजशास्त्रीय अध्ययन के गम्भीर चिह्न दिखाई देते हैं। बात तो यहाँ तक कही जा सकती है कि इन्हीं कृतियों में किसी एक विधा की भिन्न-भिन्न रचनाओं की तुलना करके किसी को कम या किसी को ज्यादा महत्वपूर्ण साबित किया जा सकना असम्भव है। एक सीमा तक इनकी कविताओं में से कुछेक को छाँटकर कहा जा सकता है कि अन्य की तुलना में ये कविताएँ कमजोर हैं। पर अन्य किसी भी विधा में ऐसा कहा जाना असम्भव है।
यहाँ कहानी पर बात होनी है। यूँ तो राजकमल ने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसे पाठकों के हाथ और मन में पहुंचने के लिए अनुशंसा की आवश्यकता हो। इस संकलन में कुल छब्बीस कहानियाँ है। पहली कहानी को छोड़कर शेष सारी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दर्शकों पूर्व प्रकाशित होकर सामने आ गई थीं। मात्र पहली कहानी अप्रकाशित थी, अपूर्ण भी। पर राजकमल की कहानियों और उपन्यासों और निबन्धों और कविताओं के बारे मे एक बात कह सकने की स्थिति में हूँ कि इनकी रचनाओं का समाप्ति स्थल किसी पृथक् आयोजन की माँग नहीं करता। शब्द-प्रयोग, वाक्य संरचना और विषय-उपस्थान की इनकी कला इतनी श्रेष्ठ थी कि जहाँ भी पंक्ति पूरी हो जाए, वहीं पर लेखक चाहें तो रचना-समाप्ति की घोषणा कर सकते हैं। कई ख्यातनामा रचनाकारों की रचनाएँ देखने-पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता रहता है कि इस खास रचना का प्रारम्भ उन्होंने कर तो दिया, पर अब इसका फैलाव उनके हाथ में नहीं रहा। अर्थात् रचनाकार विषय को अपने कंट्रोल में नहीं रख पाते, बल्कि वे खुद विषय के कंट्रोल में चले जाते हैं। विषय की माँग पूरी करने में रचना और रचनाकार दम तोड़ने लगते हैं। राजकमल के यहाँ ऐसा कभी नहीं दिखता। इनकी हर रचना अपने शब्द-शब्द में यहाँ तक कि यति-विराम में भी रचनाकार, अर्थात् राजमकल चौधरी के कंट्रोल में रही है। यही कारण है कि इस संकलन की पहली और अन्तिम दो कहानियाँ अपूर्ण रहने के बावजूद पाठकों के लिए असम्प्रेषणीय नहीं हैं। अन्तिम दो कहानियाँ आदमी अब नहीं और स्थान काल पात्र को तो इन्होंने उपन्यास की परिणति के रूप में प्रारम्भ किया था पर अन्तत: वह एक ही कथा के दो आरम्भ होकर रह गई, उपन्यास पूरा नहीं हो पाया, राजकमल दुनिया छोड़ गए। आलोचकों प्राध्यापकों सेठों और सरकारी गलियारों के सत्ताधारियों ठेकेदारों के सामने पुरस्कार मान्यता रोटी-स्त्री और पहचान-महत्व की भीख माँगते साहित्यिक व्यापारियों के लिए तो यह अच्छा ही हुआ कि वे चले गए और ये सारे नंगे होने से रह गए पर जातेजाते भी इन्होंने अपने टिप्स दे दिए कि कोई नंगा होने से बच नहीं सकता।
राजकमल चौधरी के कहानी लेखन का जो दौर है वह हिन्दी में नई कहानी का दौर है। नई कहानी के पुरोधाओं की चर्चा करना यहाँ आवश्यक नहीं लगता। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि दुकानदारी के विज्ञापन में उन लोगों ने अपनी प्रतिभा और समय-श्रम-संसाधन का भरपूर दुरुपयोग किया. नए-नए ब्रांड चलाए, राजकमल चौधरी को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। कहानी लिखने और अच्छी कहानी लिखने से बेहतर व्यापार और कुछ नहीं होता है। यही कारण है कि देहावसान के चौंतीस वर्ष बाद भी जब ये कहानियाँ पाठकों के समक्ष संकलित होकर आ रही हैं, तो अचानक उन पुरोधाओं का विज्ञापन और उनके नए-नए ब्रांड और उनके रचना-कौशल फीके पड़ रहे हैं और वे लगातार नंगे होते जा रहे हैं।
राजकमल चौधरी की कहानियाँ परमाणु में पर्वत के समावेश की कहानियाँ हैं, जो मानव-जीवन के अनछुए प्रसंगों से उठाकर लाई गई हैं जिनमें राजकमल की सारी की सारी कहानी कला मौजूद है और ऐसा लगता है कि इनमें कोई कला नहीं दिखाई गई है। जन-जीवन का सत्य ज्यों का त्यों रख दिया गया है। जस के तस रख दीन्ही चदरिया। सच्ची घटनाएँ तो अखबारी रिपोर्टों में बयाँ होती हैं, कहानी में घटनाएँ सच की तरह आती है। घटनाएँ सच हों, इससे ज्यादा जरूरी है कि वे सच लगें भी। राजकमल की कहानियों की यह खास विशेषता है कि वे सारी घटनाएँ सच हों या न हों, सच लगती अवश्य हैं। इनके समय के अन्य कहानीकारों में और इनमें यही एक फर्क है कि इनकी कहानियों के आधार पर फार्मूले बनाए जा सकते हैं पर इनके समकालीनों की कहानियाँ उनके फार्मूले पर गढी गई। जाहिर है कि वे फार्मूले उनके आलोचकों और मान्यतादाताओं ने गढ़े थे।
धर्म, साहित्य, नौकरी, व्यापार, फिल्म, सामाजिक, जीवन-यापन तमाम क्षेत्रों की विकृतियों का इतनी सूक्ष्मता से यहाँ पर्दाफाश किया गया है कि वे अचानक तार-तार हो जाती हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति, क्षणिक मनोवेगों की पुष्टि के लिए मनुष्य किस सीमा तक गिर सकता है। संन्यासी और सिद्ध योगी और यहाँ तक कि देवता की छवि रखनेवाला भी पल-भर में कैसा जानवर हो जाता है। खूँखार जानवर कैसा गऊ हो जाता है, शेर की दहाड़ और आतंक का मालिक पलभर मे कैसे गीदड़ चूहा, केचुआ चींटी हो जाता है। और रेंगने लगता है-मानव जीवन की इसी उठा-पटक का एलबम हैं राजकमल की कहानियाँ। बाकी बात तो कहानियाँ खुद ही कहेंगी, और साहित्यालोचकों को कहने को बाध्य करेंगी-ऐसा विश्वास किया जा सकता है।
संकलन में कहानियों के क्रम में किसी विधान का अनुसरण नहीं किया गया है। उसकी आवश्यकता भी नहीं। इसकी आवश्यकता तो तब पड़ती जब किसी को कम या किसी को ज्यादा महत्व की कहानी कहा जाता। यहाँ तो यह है कि इनकी हरेक रचना प्रतिनिधि रचना ही है। जिसे चाहें पहले पढ़े जिसे चाहें बाद में पढ़ें। परिणाम एक ही निकलेगा। पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ इस संग्रह का नाम इसलिए नहीं कि इस संकलन में इस शीर्षक की भी एक कहानी है बल्कि इसलिए कि हाथ जहाँ क्रियाशीलता का प्रतीक है पत्थर वहीं अवरोध का। और राजकमल चौधरी की सारी की सारी रचनाएँ इसी क्रियाशीलता और अवरोध के संघर्ष की व्याख्या हैं। रचना शीर्षक राजकमल के यहाँ बहुत महत्व रखता है। दो-तीन या कहीं-कहीं एक ही शब्द के शीर्षक इनकी रचनाओं का पूरा-पूरा रहस्य खोलते नजर आते हैं। एक अर्थ यह भी लगाना चाहता हूँ कि राजकमल के जिन क्रियाशील हाथों को हिन्दी के षड्यन्त्रकारियों ने अब तक दबाना चाहा, वह अब पत्थर को उलटकर उसे तोड़ रहे हैं। और पूरे जनपद में विकृतियों के पत्थर जिस तरह हाथ पर पड़े हैं उसका खुलासा तो ये कहानियाँ करती ही हैं, बहरहाल...
राजकमल चौधरी की रचनाएँ जिस तरह बिखरी पड़ी हैं, उन्हें एकत्र करना बडा कठिन काम है। कई अग्रज समवयस्क, अनुज मित्र साहित्यानुरागी हैं, जिनके असीम सहयोग से यह काम पूरा हो रहा है। आदरणीय श्री दिनेश शर्मा, डॉ.चन्द्रेश्वर कर्ण, डॉ.रामकिसोर द्विवेदी, श्री महेश नारायण ‘भारती’, श्री सौमित्र मोहन, डॉ.बलदेव वंशी, श्री सुधीर झा, प्रियवर डॉ.तारानन्द वियोगी, श्री नवीन चौधरी, श्री विनय भूषण, श्री पंकज पराशर, श्री सारंग कुमार, डॉ.रमेश कुमार श्रीमती प्रतिमा, श्री विपिन कुमार प्रभृति लोगों की मदद और शुभकामनाओं ने ही इस काम को इस मुकाम तक पहुंचाया। मैं इन सबका कृतज्ञ और इनके सामने नत हूँ, इनके सहयोग भाव को नमन करता हूँ।
कुछ ने इन्हें मैथिली का बड़ा लेखक माना, कुछ ने हिन्दी का। पर तटस्थ दृष्टि से देखने पर ये सारी घोषणाएं असत्य साबित हो गई। कोई भी विधा इनके यहाँ कमतर नहीं हुई। अबाध गति से हर विधा में लिखते गये। इनके बारे में यह निर्णय लेना कठिन है कि इनका कथाकार बड़ा है या कवि, या उपन्यासकार, या अनुवादक, या निबन्धकार या समीक्षक। यहाँ तक कि इनके पत्रों और डायरियों तक में समाजशास्त्रीय अध्ययन के गम्भीर चिह्न दिखाई देते हैं। बात तो यहाँ तक कही जा सकती है कि इन्हीं कृतियों में किसी एक विधा की भिन्न-भिन्न रचनाओं की तुलना करके किसी को कम या किसी को ज्यादा महत्वपूर्ण साबित किया जा सकना असम्भव है। एक सीमा तक इनकी कविताओं में से कुछेक को छाँटकर कहा जा सकता है कि अन्य की तुलना में ये कविताएँ कमजोर हैं। पर अन्य किसी भी विधा में ऐसा कहा जाना असम्भव है।
यहाँ कहानी पर बात होनी है। यूँ तो राजकमल ने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसे पाठकों के हाथ और मन में पहुंचने के लिए अनुशंसा की आवश्यकता हो। इस संकलन में कुल छब्बीस कहानियाँ है। पहली कहानी को छोड़कर शेष सारी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में दर्शकों पूर्व प्रकाशित होकर सामने आ गई थीं। मात्र पहली कहानी अप्रकाशित थी, अपूर्ण भी। पर राजकमल की कहानियों और उपन्यासों और निबन्धों और कविताओं के बारे मे एक बात कह सकने की स्थिति में हूँ कि इनकी रचनाओं का समाप्ति स्थल किसी पृथक् आयोजन की माँग नहीं करता। शब्द-प्रयोग, वाक्य संरचना और विषय-उपस्थान की इनकी कला इतनी श्रेष्ठ थी कि जहाँ भी पंक्ति पूरी हो जाए, वहीं पर लेखक चाहें तो रचना-समाप्ति की घोषणा कर सकते हैं। कई ख्यातनामा रचनाकारों की रचनाएँ देखने-पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता रहता है कि इस खास रचना का प्रारम्भ उन्होंने कर तो दिया, पर अब इसका फैलाव उनके हाथ में नहीं रहा। अर्थात् रचनाकार विषय को अपने कंट्रोल में नहीं रख पाते, बल्कि वे खुद विषय के कंट्रोल में चले जाते हैं। विषय की माँग पूरी करने में रचना और रचनाकार दम तोड़ने लगते हैं। राजकमल के यहाँ ऐसा कभी नहीं दिखता। इनकी हर रचना अपने शब्द-शब्द में यहाँ तक कि यति-विराम में भी रचनाकार, अर्थात् राजमकल चौधरी के कंट्रोल में रही है। यही कारण है कि इस संकलन की पहली और अन्तिम दो कहानियाँ अपूर्ण रहने के बावजूद पाठकों के लिए असम्प्रेषणीय नहीं हैं। अन्तिम दो कहानियाँ आदमी अब नहीं और स्थान काल पात्र को तो इन्होंने उपन्यास की परिणति के रूप में प्रारम्भ किया था पर अन्तत: वह एक ही कथा के दो आरम्भ होकर रह गई, उपन्यास पूरा नहीं हो पाया, राजकमल दुनिया छोड़ गए। आलोचकों प्राध्यापकों सेठों और सरकारी गलियारों के सत्ताधारियों ठेकेदारों के सामने पुरस्कार मान्यता रोटी-स्त्री और पहचान-महत्व की भीख माँगते साहित्यिक व्यापारियों के लिए तो यह अच्छा ही हुआ कि वे चले गए और ये सारे नंगे होने से रह गए पर जातेजाते भी इन्होंने अपने टिप्स दे दिए कि कोई नंगा होने से बच नहीं सकता।
राजकमल चौधरी के कहानी लेखन का जो दौर है वह हिन्दी में नई कहानी का दौर है। नई कहानी के पुरोधाओं की चर्चा करना यहाँ आवश्यक नहीं लगता। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि दुकानदारी के विज्ञापन में उन लोगों ने अपनी प्रतिभा और समय-श्रम-संसाधन का भरपूर दुरुपयोग किया. नए-नए ब्रांड चलाए, राजकमल चौधरी को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। कहानी लिखने और अच्छी कहानी लिखने से बेहतर व्यापार और कुछ नहीं होता है। यही कारण है कि देहावसान के चौंतीस वर्ष बाद भी जब ये कहानियाँ पाठकों के समक्ष संकलित होकर आ रही हैं, तो अचानक उन पुरोधाओं का विज्ञापन और उनके नए-नए ब्रांड और उनके रचना-कौशल फीके पड़ रहे हैं और वे लगातार नंगे होते जा रहे हैं।
राजकमल चौधरी की कहानियाँ परमाणु में पर्वत के समावेश की कहानियाँ हैं, जो मानव-जीवन के अनछुए प्रसंगों से उठाकर लाई गई हैं जिनमें राजकमल की सारी की सारी कहानी कला मौजूद है और ऐसा लगता है कि इनमें कोई कला नहीं दिखाई गई है। जन-जीवन का सत्य ज्यों का त्यों रख दिया गया है। जस के तस रख दीन्ही चदरिया। सच्ची घटनाएँ तो अखबारी रिपोर्टों में बयाँ होती हैं, कहानी में घटनाएँ सच की तरह आती है। घटनाएँ सच हों, इससे ज्यादा जरूरी है कि वे सच लगें भी। राजकमल की कहानियों की यह खास विशेषता है कि वे सारी घटनाएँ सच हों या न हों, सच लगती अवश्य हैं। इनके समय के अन्य कहानीकारों में और इनमें यही एक फर्क है कि इनकी कहानियों के आधार पर फार्मूले बनाए जा सकते हैं पर इनके समकालीनों की कहानियाँ उनके फार्मूले पर गढी गई। जाहिर है कि वे फार्मूले उनके आलोचकों और मान्यतादाताओं ने गढ़े थे।
धर्म, साहित्य, नौकरी, व्यापार, फिल्म, सामाजिक, जीवन-यापन तमाम क्षेत्रों की विकृतियों का इतनी सूक्ष्मता से यहाँ पर्दाफाश किया गया है कि वे अचानक तार-तार हो जाती हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों की पूर्ति, क्षणिक मनोवेगों की पुष्टि के लिए मनुष्य किस सीमा तक गिर सकता है। संन्यासी और सिद्ध योगी और यहाँ तक कि देवता की छवि रखनेवाला भी पल-भर में कैसा जानवर हो जाता है। खूँखार जानवर कैसा गऊ हो जाता है, शेर की दहाड़ और आतंक का मालिक पलभर मे कैसे गीदड़ चूहा, केचुआ चींटी हो जाता है। और रेंगने लगता है-मानव जीवन की इसी उठा-पटक का एलबम हैं राजकमल की कहानियाँ। बाकी बात तो कहानियाँ खुद ही कहेंगी, और साहित्यालोचकों को कहने को बाध्य करेंगी-ऐसा विश्वास किया जा सकता है।
संकलन में कहानियों के क्रम में किसी विधान का अनुसरण नहीं किया गया है। उसकी आवश्यकता भी नहीं। इसकी आवश्यकता तो तब पड़ती जब किसी को कम या किसी को ज्यादा महत्व की कहानी कहा जाता। यहाँ तो यह है कि इनकी हरेक रचना प्रतिनिधि रचना ही है। जिसे चाहें पहले पढ़े जिसे चाहें बाद में पढ़ें। परिणाम एक ही निकलेगा। पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ इस संग्रह का नाम इसलिए नहीं कि इस संकलन में इस शीर्षक की भी एक कहानी है बल्कि इसलिए कि हाथ जहाँ क्रियाशीलता का प्रतीक है पत्थर वहीं अवरोध का। और राजकमल चौधरी की सारी की सारी रचनाएँ इसी क्रियाशीलता और अवरोध के संघर्ष की व्याख्या हैं। रचना शीर्षक राजकमल के यहाँ बहुत महत्व रखता है। दो-तीन या कहीं-कहीं एक ही शब्द के शीर्षक इनकी रचनाओं का पूरा-पूरा रहस्य खोलते नजर आते हैं। एक अर्थ यह भी लगाना चाहता हूँ कि राजकमल के जिन क्रियाशील हाथों को हिन्दी के षड्यन्त्रकारियों ने अब तक दबाना चाहा, वह अब पत्थर को उलटकर उसे तोड़ रहे हैं। और पूरे जनपद में विकृतियों के पत्थर जिस तरह हाथ पर पड़े हैं उसका खुलासा तो ये कहानियाँ करती ही हैं, बहरहाल...
राजकमल चौधरी की रचनाएँ जिस तरह बिखरी पड़ी हैं, उन्हें एकत्र करना बडा कठिन काम है। कई अग्रज समवयस्क, अनुज मित्र साहित्यानुरागी हैं, जिनके असीम सहयोग से यह काम पूरा हो रहा है। आदरणीय श्री दिनेश शर्मा, डॉ.चन्द्रेश्वर कर्ण, डॉ.रामकिसोर द्विवेदी, श्री महेश नारायण ‘भारती’, श्री सौमित्र मोहन, डॉ.बलदेव वंशी, श्री सुधीर झा, प्रियवर डॉ.तारानन्द वियोगी, श्री नवीन चौधरी, श्री विनय भूषण, श्री पंकज पराशर, श्री सारंग कुमार, डॉ.रमेश कुमार श्रीमती प्रतिमा, श्री विपिन कुमार प्रभृति लोगों की मदद और शुभकामनाओं ने ही इस काम को इस मुकाम तक पहुंचाया। मैं इन सबका कृतज्ञ और इनके सामने नत हूँ, इनके सहयोग भाव को नमन करता हूँ।
देवशंकर नवीन
पात्र, प्रकाशवती, अस्पताल और अन्य प्रसंग
(हीरा के लिए लिखी गई)
1
औरत-जो कोई भी हो-सिगरेट पीती है, तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं उसे धुआँ फेंकनेवाली मशीन समझने लगता हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ मौसमी फूलो की तरह होती हैं, उन्हें अलग-अलग फूलदानों में सजाना चाहिए। लेकिन मैं अपने गाँव में था-मेरा गाँव कोसी नदी के पेट में है, और अब धीरे-धीरे पेट के बाहर और जंगल के बाहर निकल आने की कोशिश में है अखबार वहाँ अब भी नहीं आते, और गाँव के लोग दिन-पंजिका से मुहुर्त देखकर ही शहर की यात्रा पर निकलते हैं-और पटना-अस्पताल की मिस पी.राजम्मा मुझसे सैक़डों मील पीछे छूट चुकी थी।
सिगरेट पीनेवाली औरत का कोई सवाल ही नहीं था, उस गाँव मे। मेरे घर की बगल में, दो मकानों के बाद रमानाथ बाबू रहते हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति में है। जनसंघ का करते हैं। आम चुनाव नजदीक आ गया है। जीतेगा जी जीतेगा दीपक वाला जीतेगा-एक डब्बा बिस्कुट के लिए, गाँव के बच्चे चिल्लाते हैं, कौन जानता है, कल सुबह ये बच्चे किसका नाम चिल्लाएँगे। मैं रमानाथ से बहस करता हूँ और उनके कच्चे दालान में बैठकर लिप्टन की असली चाय पीता हूँ। चाय के बारेमें अभी भी मेरे मन में थोड़ा आभिजात्य है अच्छी चाय जैस्मिन नहीं तो कम से कम लेप्चू मुझे अच्छी लगती है। बुरी चाय अच्छी नहीं लगती। लेकिन, रमानाथ के घर की चाय-लिप्टन की मुझे अच्छी लगती थी।
अपने घर में भी वही चाय बनती है। लेकिन उसका फर्ज सिर्फ मुझे सुबह की नींद से जगाना है। उस चाय में सुख नहीं है एक विवशता है नींद तोड़ लेने की।
जैसे पी. राजम्मा थरमस में अपने होस्टल से चाय लाती थी। यह चाय उतनी गर्म नहीं रह पाती थी, लेकिन मजबूत और आत्मविभोर करनेवाली होती थी। मैं चाय के साथ सिगरेट पीता हूँ और अपने इर्द-गिर्द अपने परिवेश अपने समाज के बारे में कोई-न-कोई फैसला लेता हूँ। अस्पताल में इससे ज़्यादा गुस्सा नहीं किया जा सकता। गुस्से का यहाँ कोई कारण नहीं है।
डॉक्टर लोग आते हैं तो मुस्कुराते हैं और पीठ पर हाथ रखकर दोस्त की तरह बातें करते हैं। मैं सोचता हूँ मेरे अन्दर ज़रूर कोई ख़ास बीमारी हैं-कैंसर की तरह-जिस बीमारी की कद्र इन लोगों के दिल में है।
पी. राजम्मा अपने दूसरे टर्न में छह महीनों के बाद दोबारा हमारे वार्ड में आई है। पहली बार आई थी, तब मैं होश में नहीं था। लोगों के चेहरे देखता था, बातें सुनता था, लेकिन वे कौन हैं, मुझसे उनका क्या रिश्ता है-य़ह मेरी पत्नी है, जो दिन-रात तिपाई पर मेरे सिरहाने बैठी रहती हैं-यह सुधीर है मेरा सगा भाई ओह ये मेरे दोस्त हैं-मैं उन्हें पहचान नहीं पाता था। एक बार उपाध्याय की पत्नी ने मुझसे कहा, सुबह की ड्यूटीवाली नर्स मिस राजम्मा आपकी बड़ी सेवा करती हैं। आप अच्छे हो जाएँ तो उसे जरूर कोई इनाम दूँगी,.कोई अच्छा सा प्रेजेंट जैसे कच्चे रेशम की कोई साड़ी!
मैं सुबह में जगे रहकर इस दय़ालु सेविका मिस पी.राजम्मा के देखने और पहचानने की कोशिश करता हूँ कि कच्चे सिल्क में वह कोल-कन्या कैसी लगेगी। नर्से ज़्यादातर अपनी सफ़ेद और तंग वर्दी में अच्छी लगती हैं, अपनी पट्टीदार कोर की सफ़ेद धुली साडी में. सिल्क में वह कैसी दिखेगी ? नर्से भी और फौजी सिपाही भी अपनी वर्दी में ही जँजते हैं।खाकी वर्दी और बड़ी डील-डौल के जूते उतार देने पर सिपाही लोग छोटी-किस्म के बाज़ारू शोहदों की तरह दिखते हैं। उनके चेहरे पर न तो वीरता का उन्माद दिखता है और न पराक्रम का वीरोचित आग्रह। वर्दी उतार देने पर वे बीमार दिखते हैं बीमार और बेरोजगार।
अपने दूसरे टर्न में छह महीने बाद जब पी.राजम्मा आई, तब तक मुझे अपने ही बी-वार्ड में पूरा एक कमरा मिल चुका था। यह दरअसल रेजीडेंट सर्जन का कमरा था, जो अक्सर बन्द रहता था और जब कोई वी.आई.पी. मरीज बी-वार्ड में आता था, तो बडे डॉक्टर के कहने से वार्ड की स्थायी स्टॉफ-नर्स बडी नाजो-अदा से हिलती-डुलती हुई, पूरे वार्ड का दायरा घूमकर इस एकान्त कमरे के पास रुकती थीं और दरवाज़ा खोलकर, चाबी मरीज़ या मरीज़ बेहोश रहा तो मरीज़ के रिश्तेदारों के हाथ में थमाकर सीधे लाइफबॉय से धुली हुई मुस्कुराहटों से अपने होंठों को लपेटकर कहती थीं, आप बहुत
मैं मिनिस्टर का आदमी नहीं हूँ। मैं किसी का, किसी बनिए का भी नहीं, महन्त का भी नहीं, आदमी नहीं हूं। मैं आदमी नहीं हूँ-यही बात साबित करने के लिए मैं किताबें पढ़ता हूँ, मैं चायखानों में बैठकर दक्षिणपन्थी साम्यवाद और वामपन्थी साम्यवाद की तुलना करता हूँ मैं रोज नशा लेता हूँ मैं जब कभी कोई औरत लेता हूँ और ज़्यादातर मैं अपने कमरे में टेबल के सहारे बिस्तरे पर पड़ा हुआ, अपने बारे में और इतनी बड़ी इस सारी दुनिया के बारे में सोचता रहता हूँ-क्या होगा, और क्या होना चाहिए!
बड़े शहरों में और अपने देश के गाँवों में भी एक तरह के ऐसे लोगों की बिखर हुई जमात ज़रूर होती है-ऐसी जमात जो काम या पेशे के रूप में सिर्फ़ सोचने का काम करती है। दूसरा कोई काम ऐसे लोगों को मालूम ही नहीं है। सोचना, और सिर्फ़ सोचते रहना, इसके बारे में नहीं कि उनके दिन कब पलटेंगे, कब उनकी बच्ची बड़ी होकर किसी स्कूल में नौकरी करने लगेगी या किस तरह लम्बे कर्ज में गाँव के बनिए-महाजनों के हाथ चले गए उनके खेत वापस आएँगे-यह नहीं यह सब कुछ भी नहीं सिर्फ ऊंची और बड़ी बातें कि आदमी जब ग्रहों और नक्षत्रों पर घर-दरवाजा बनाकर रहने लगेगा वैसी हालतमें अन्तर्क्षेत्रीय परिस्थितियाँ क्या होंगी, आदमी और आदमी के बीच का रिश्ता क्या होगा, कैसा होगा-और यह कि प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी अगर राजनीति (सक्रिय और सक्रिय दोनों) से संन्यास आखिर ले ही लेंगी, तो वे क्या करेंगी, उनका खाली वक्त कैसे कटेगा-और यह भी कि प्रकाशवती हर दिन दोपहर में भगवती-धाम क्यों जाती है, इतनी कोमल है वह, इतनी गोरी है कि धूप में साँवली हो जाएगी...
ऐसे लोग हर शहर में और हर गाँव में होते हैं, कही अकेले और कहीं इनकी पूरी की पूरी एक जमात होती है।
रमानाथ ऐसे लोगों में नहीं है। वे अपने आप में अकेले रहते हैं, लेकिन वे सोचते नहीं। करते हैं। एक छोटी सी रूटीन में अपनी पूरी जिन्दगी को समेटकर वे अपना काम अकेले किए जाते हैं चाहे वह अपने दालान के सामने जनसंघ का भगवा झंडा गाड़ने की बात हो, या अपने बीमार बैल को जानवर-अस्पताल ले जाने की बात। प्रकाशवती उनकी सगी छोटी बहन का नाम है। और वह नाम मेरे लिए किसी बड़े उपन्यास की बड़ी नायिका का नाम है किसी बेनाम गाँव की किसी बेनाम स्त्री का नाम नहीं है।
स्त्रियों के नाम मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं स्त्रियाँ। चन्द स्त्रियों ने ही मेरी रचना-प्रतिभा यानी अपने परिवेश की रचना के लिए, आवश्यक प्रतिभा को अपना अभिमान दिया है। प्रकाशवती पी. राजम्मा अलका दासगुप्ता..स्त्रियाँ जहां होते हैं अनायास। अनायास वह एक स्त्री प्रकाशवती सुबह के वक्त मेरे दालान की बडी खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है और पूछती हैं, गाँव से वापस जा रहे हैं ? अब यहाँ से जी भर गया ? यहां के लोगों से ?’’
प्रकाशवती अर्थात् रमानाथ ठाकुर की बहन अपने भाई की ही तरह चिन्ताहीन है, वह सोचने का काम नहीं करती। वह सीधी अपने मकान से निकलती है और चुपचाप मेरे दालान की खिड़की पर चली आती है। उसे अन्दर बुला लेने का साहस मुझमें नहीं है। एक चितकबरी गौरैया बार-बार दीवार मं लगी कार्ल मॉर्क्स की बड़ी तस्वीर पर बैठना चाहती हैं, और बार-बार कमरे में उड़ती हुई बाहर निकल जाने की कोशिश करती है।
खिड़की की जाफरी में प्रकाशवती का चेहरा फ्रेम में बंधे, किसी तस्वीर के चेहरे जैसा लगता हैउसकी बाँहें और उसके कंधे हथकरघे की लाल पीली धारीदार साड़ी में छिपे हुए हैं। लेकिन, वह मुस्कुरा नहीं रही है। वह उदास है।
-ऐसा नहीं हो सकता ? ऐसा होता कि...
-ऐसा क्या होता ?
-ऐसा नहीं हो सकता कि आप दस दिन बाद बाहर जाएँ ? होली में अब गिनती के दिन रह गए हैं।
-मैं किसी से होली नहीं खेलता।
-भाभी से भी नहीं ?
-नहीं।
-लेकिन, चला जाना,...हमेशा केलिए चला जाना क्या इतना ज़रूरी है ?
-अगस्त में ? अर्थात् आप अभी के गए, सावन-भादों में गाँव आएँगे ?
-इरादा तो यही है।
-आप दस दिन रुक नहीं सकते ?
-क्या लाभ होगा ?
-किसी की बात रह जाएगी, यही लाभ होगा।
-किसकी बात रह जाएगी ?
-किसी की !
लेकिन, किसकी बात रह जाएगी, यह बताए बग़ैर प्रकाशवती की तस्वीर खिड़की के फ्रेम से गायब हो गई। किसी की बात रह जाएगी-यह कहकर प्रकाश शरमाने लगी थी। कोई भी मामूली सा सच कह लेने के बाद खुश होकर निवृत्त होकर औरतें शऱमाती हैं। यह शर्म गलत नहीं है, लेकिन कविता नहीं है। ऐसी शर्म में सुन्दरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन, अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो सिर झुकाकर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती हैं, या फिर अपनी जीत का एलान करके वहाँ से चली जाती हैं, फिर कभी वहीं वापस आने के लिए। वापस आ जाना स्त्रियों की विवशता है। प्रकाशवती को किसी-न-किसी वक्त लौट आना ही होगा।
सिगरेट पीनेवाली औरत का कोई सवाल ही नहीं था, उस गाँव मे। मेरे घर की बगल में, दो मकानों के बाद रमानाथ बाबू रहते हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति में है। जनसंघ का करते हैं। आम चुनाव नजदीक आ गया है। जीतेगा जी जीतेगा दीपक वाला जीतेगा-एक डब्बा बिस्कुट के लिए, गाँव के बच्चे चिल्लाते हैं, कौन जानता है, कल सुबह ये बच्चे किसका नाम चिल्लाएँगे। मैं रमानाथ से बहस करता हूँ और उनके कच्चे दालान में बैठकर लिप्टन की असली चाय पीता हूँ। चाय के बारेमें अभी भी मेरे मन में थोड़ा आभिजात्य है अच्छी चाय जैस्मिन नहीं तो कम से कम लेप्चू मुझे अच्छी लगती है। बुरी चाय अच्छी नहीं लगती। लेकिन, रमानाथ के घर की चाय-लिप्टन की मुझे अच्छी लगती थी।
अपने घर में भी वही चाय बनती है। लेकिन उसका फर्ज सिर्फ मुझे सुबह की नींद से जगाना है। उस चाय में सुख नहीं है एक विवशता है नींद तोड़ लेने की।
जैसे पी. राजम्मा थरमस में अपने होस्टल से चाय लाती थी। यह चाय उतनी गर्म नहीं रह पाती थी, लेकिन मजबूत और आत्मविभोर करनेवाली होती थी। मैं चाय के साथ सिगरेट पीता हूँ और अपने इर्द-गिर्द अपने परिवेश अपने समाज के बारे में कोई-न-कोई फैसला लेता हूँ। अस्पताल में इससे ज़्यादा गुस्सा नहीं किया जा सकता। गुस्से का यहाँ कोई कारण नहीं है।
डॉक्टर लोग आते हैं तो मुस्कुराते हैं और पीठ पर हाथ रखकर दोस्त की तरह बातें करते हैं। मैं सोचता हूँ मेरे अन्दर ज़रूर कोई ख़ास बीमारी हैं-कैंसर की तरह-जिस बीमारी की कद्र इन लोगों के दिल में है।
पी. राजम्मा अपने दूसरे टर्न में छह महीनों के बाद दोबारा हमारे वार्ड में आई है। पहली बार आई थी, तब मैं होश में नहीं था। लोगों के चेहरे देखता था, बातें सुनता था, लेकिन वे कौन हैं, मुझसे उनका क्या रिश्ता है-य़ह मेरी पत्नी है, जो दिन-रात तिपाई पर मेरे सिरहाने बैठी रहती हैं-यह सुधीर है मेरा सगा भाई ओह ये मेरे दोस्त हैं-मैं उन्हें पहचान नहीं पाता था। एक बार उपाध्याय की पत्नी ने मुझसे कहा, सुबह की ड्यूटीवाली नर्स मिस राजम्मा आपकी बड़ी सेवा करती हैं। आप अच्छे हो जाएँ तो उसे जरूर कोई इनाम दूँगी,.कोई अच्छा सा प्रेजेंट जैसे कच्चे रेशम की कोई साड़ी!
मैं सुबह में जगे रहकर इस दय़ालु सेविका मिस पी.राजम्मा के देखने और पहचानने की कोशिश करता हूँ कि कच्चे सिल्क में वह कोल-कन्या कैसी लगेगी। नर्से ज़्यादातर अपनी सफ़ेद और तंग वर्दी में अच्छी लगती हैं, अपनी पट्टीदार कोर की सफ़ेद धुली साडी में. सिल्क में वह कैसी दिखेगी ? नर्से भी और फौजी सिपाही भी अपनी वर्दी में ही जँजते हैं।खाकी वर्दी और बड़ी डील-डौल के जूते उतार देने पर सिपाही लोग छोटी-किस्म के बाज़ारू शोहदों की तरह दिखते हैं। उनके चेहरे पर न तो वीरता का उन्माद दिखता है और न पराक्रम का वीरोचित आग्रह। वर्दी उतार देने पर वे बीमार दिखते हैं बीमार और बेरोजगार।
अपने दूसरे टर्न में छह महीने बाद जब पी.राजम्मा आई, तब तक मुझे अपने ही बी-वार्ड में पूरा एक कमरा मिल चुका था। यह दरअसल रेजीडेंट सर्जन का कमरा था, जो अक्सर बन्द रहता था और जब कोई वी.आई.पी. मरीज बी-वार्ड में आता था, तो बडे डॉक्टर के कहने से वार्ड की स्थायी स्टॉफ-नर्स बडी नाजो-अदा से हिलती-डुलती हुई, पूरे वार्ड का दायरा घूमकर इस एकान्त कमरे के पास रुकती थीं और दरवाज़ा खोलकर, चाबी मरीज़ या मरीज़ बेहोश रहा तो मरीज़ के रिश्तेदारों के हाथ में थमाकर सीधे लाइफबॉय से धुली हुई मुस्कुराहटों से अपने होंठों को लपेटकर कहती थीं, आप बहुत
मैं मिनिस्टर का आदमी नहीं हूँ। मैं किसी का, किसी बनिए का भी नहीं, महन्त का भी नहीं, आदमी नहीं हूं। मैं आदमी नहीं हूँ-यही बात साबित करने के लिए मैं किताबें पढ़ता हूँ, मैं चायखानों में बैठकर दक्षिणपन्थी साम्यवाद और वामपन्थी साम्यवाद की तुलना करता हूँ मैं रोज नशा लेता हूँ मैं जब कभी कोई औरत लेता हूँ और ज़्यादातर मैं अपने कमरे में टेबल के सहारे बिस्तरे पर पड़ा हुआ, अपने बारे में और इतनी बड़ी इस सारी दुनिया के बारे में सोचता रहता हूँ-क्या होगा, और क्या होना चाहिए!
बड़े शहरों में और अपने देश के गाँवों में भी एक तरह के ऐसे लोगों की बिखर हुई जमात ज़रूर होती है-ऐसी जमात जो काम या पेशे के रूप में सिर्फ़ सोचने का काम करती है। दूसरा कोई काम ऐसे लोगों को मालूम ही नहीं है। सोचना, और सिर्फ़ सोचते रहना, इसके बारे में नहीं कि उनके दिन कब पलटेंगे, कब उनकी बच्ची बड़ी होकर किसी स्कूल में नौकरी करने लगेगी या किस तरह लम्बे कर्ज में गाँव के बनिए-महाजनों के हाथ चले गए उनके खेत वापस आएँगे-यह नहीं यह सब कुछ भी नहीं सिर्फ ऊंची और बड़ी बातें कि आदमी जब ग्रहों और नक्षत्रों पर घर-दरवाजा बनाकर रहने लगेगा वैसी हालतमें अन्तर्क्षेत्रीय परिस्थितियाँ क्या होंगी, आदमी और आदमी के बीच का रिश्ता क्या होगा, कैसा होगा-और यह कि प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी अगर राजनीति (सक्रिय और सक्रिय दोनों) से संन्यास आखिर ले ही लेंगी, तो वे क्या करेंगी, उनका खाली वक्त कैसे कटेगा-और यह भी कि प्रकाशवती हर दिन दोपहर में भगवती-धाम क्यों जाती है, इतनी कोमल है वह, इतनी गोरी है कि धूप में साँवली हो जाएगी...
ऐसे लोग हर शहर में और हर गाँव में होते हैं, कही अकेले और कहीं इनकी पूरी की पूरी एक जमात होती है।
रमानाथ ऐसे लोगों में नहीं है। वे अपने आप में अकेले रहते हैं, लेकिन वे सोचते नहीं। करते हैं। एक छोटी सी रूटीन में अपनी पूरी जिन्दगी को समेटकर वे अपना काम अकेले किए जाते हैं चाहे वह अपने दालान के सामने जनसंघ का भगवा झंडा गाड़ने की बात हो, या अपने बीमार बैल को जानवर-अस्पताल ले जाने की बात। प्रकाशवती उनकी सगी छोटी बहन का नाम है। और वह नाम मेरे लिए किसी बड़े उपन्यास की बड़ी नायिका का नाम है किसी बेनाम गाँव की किसी बेनाम स्त्री का नाम नहीं है।
स्त्रियों के नाम मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं स्त्रियाँ। चन्द स्त्रियों ने ही मेरी रचना-प्रतिभा यानी अपने परिवेश की रचना के लिए, आवश्यक प्रतिभा को अपना अभिमान दिया है। प्रकाशवती पी. राजम्मा अलका दासगुप्ता..स्त्रियाँ जहां होते हैं अनायास। अनायास वह एक स्त्री प्रकाशवती सुबह के वक्त मेरे दालान की बडी खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है और पूछती हैं, गाँव से वापस जा रहे हैं ? अब यहाँ से जी भर गया ? यहां के लोगों से ?’’
प्रकाशवती अर्थात् रमानाथ ठाकुर की बहन अपने भाई की ही तरह चिन्ताहीन है, वह सोचने का काम नहीं करती। वह सीधी अपने मकान से निकलती है और चुपचाप मेरे दालान की खिड़की पर चली आती है। उसे अन्दर बुला लेने का साहस मुझमें नहीं है। एक चितकबरी गौरैया बार-बार दीवार मं लगी कार्ल मॉर्क्स की बड़ी तस्वीर पर बैठना चाहती हैं, और बार-बार कमरे में उड़ती हुई बाहर निकल जाने की कोशिश करती है।
खिड़की की जाफरी में प्रकाशवती का चेहरा फ्रेम में बंधे, किसी तस्वीर के चेहरे जैसा लगता हैउसकी बाँहें और उसके कंधे हथकरघे की लाल पीली धारीदार साड़ी में छिपे हुए हैं। लेकिन, वह मुस्कुरा नहीं रही है। वह उदास है।
-ऐसा नहीं हो सकता ? ऐसा होता कि...
-ऐसा क्या होता ?
-ऐसा नहीं हो सकता कि आप दस दिन बाद बाहर जाएँ ? होली में अब गिनती के दिन रह गए हैं।
-मैं किसी से होली नहीं खेलता।
-भाभी से भी नहीं ?
-नहीं।
-लेकिन, चला जाना,...हमेशा केलिए चला जाना क्या इतना ज़रूरी है ?
-अगस्त में ? अर्थात् आप अभी के गए, सावन-भादों में गाँव आएँगे ?
-इरादा तो यही है।
-आप दस दिन रुक नहीं सकते ?
-क्या लाभ होगा ?
-किसी की बात रह जाएगी, यही लाभ होगा।
-किसकी बात रह जाएगी ?
-किसी की !
लेकिन, किसकी बात रह जाएगी, यह बताए बग़ैर प्रकाशवती की तस्वीर खिड़की के फ्रेम से गायब हो गई। किसी की बात रह जाएगी-यह कहकर प्रकाश शरमाने लगी थी। कोई भी मामूली सा सच कह लेने के बाद खुश होकर निवृत्त होकर औरतें शऱमाती हैं। यह शर्म गलत नहीं है, लेकिन कविता नहीं है। ऐसी शर्म में सुन्दरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन, अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो सिर झुकाकर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती हैं, या फिर अपनी जीत का एलान करके वहाँ से चली जाती हैं, फिर कभी वहीं वापस आने के लिए। वापस आ जाना स्त्रियों की विवशता है। प्रकाशवती को किसी-न-किसी वक्त लौट आना ही होगा।
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